
रात 1:30 बजे – माटुंगा स्टेशन
श्रेया एक स्टोरी की जांच करने स्टेशन पर पहुंचती है। कुछ यात्रियों ने शिकायत की थी कि रात के वक्त स्टेशन पर एक “काली छाया” दिखती है, जो ट्रैक पर खड़ी रहती है। लोग जब पास जाते हैं, तो वो गायब हो जाती है… या फिर पास आने वाले की आंखों में खून आ जाता है।
श्रेया को अंधविश्वासों पर यकीन नहीं, पर जब वो खुद एक रात उस छाया को देखती है – स्टेशन पर झुकी हुई एक लंबी आकृति, बाल खुले, और वो रेल की पटरी पर धीरे-धीरे चलती है… तब वो डर जाती है।
वो छाया हर रात एक ही जगह दिखाई देती है। श्रेया दादी से पूछती है, पर दादी कुछ नहीं बतातीं। राजन, पुलिस वाला, उसे बताता है कि 1964 में एक लड़की की इसी स्टेशन पर आत्महत्या हुई थी।
नाम था – नूतन कोली, वो एक कोली परिवार से थी। उसका बॉयफ्रेंड एक लोकल नेता था, जिसने उसका फायदा उठाया और छोड़ दिया। लड़की ने स्टेशन पर ट्रेन के सामने कूदकर जान दे दी। पर उसके मरने के बाद भी कई लोगों ने उसे देखा – पहले ट्रेन ड्राइवर, फिर यात्रियों ने।
श्रेया को पता चलता है कि उसकी अपनी दादी ही उस नूतन की बहन हैं, जिन्होंने अपनी बहन की मौत छुपाकर रखी थी। उस रात श्रेया एक आखिरी बार स्टेशन जाती है, और छाया उसे दिखाई देती है – पास आती है – लेकिन इस बार छाया कुछ कहती है:
“मुझे बस सच चाहिए… मेरा नाम दुनिया को बता दो…”
श्रेया अगले दिन एक वीडियो डॉक्यूमेंट्री बनाती है – “माटुंगा की मरी हुई लड़की” – और तब जाकर वो छाया हमेशा के लिए स्टेशन से गायब हो जाती है…
🎭 पात्र:
- अर्जुन कपूर: एक संघर्षरत एक्टर
- दादी: अब वरसोवा में रहती हैं, पर कुछ छुपा रही हैं
- शान: अर्जुन का दोस्त
- ‘वो औरत’: जो आईने में दिखाई देती है… लेकिन उसके पैर नहीं दिखते
वरसोवा बीच के पास एक पुराना कोली बंगला, नंबर 703, जो 1992 से बंद था।
अर्जुन को एक सस्ता कमरा मिलता है – बंगला नंबर 703 में। वह खुश है, शूटिंग के पास है और लोकेशन शांत। लेकिन पहले ही दिन, बाथरूम में शीशे में उसे एक अजीब सी औरत दिखती है – लंबे बाल, पीली आंखें, और उसकी परछाई के नीचे पैर नहीं होते।
बंगले में पहले एक बंगाली डायरेक्टर रहा करता था – बिस्वास बाबू – जो “भूतिया फिल्मों” के लिए कुख्यात था। कहा जाता है, उसने एक असली आत्मा को शूट करने की कोशिश की थी – एक कोली औरत की, जिसे 1942 में अंग्रेज़ों ने बीच पर मार डाला था।
उस डायरेक्टर की भी मौत रहस्यमयी थी – शूटिंग के दिन बाथरूम में मरा मिला, चेहरा जल चुका था… शीशे में “वापस मत आना” लिखा था।
अर्जुन जब उस डायरी को ढूंढ निकालता है, तब उसे पता चलता है कि आत्मा को बंद करने के लिए बंगले के आंगन में ‘समुद्र का नमक’ और ‘काले तुलसी के बीज’ दबाए गए थे। पर बंगला अब टूटा हुआ है, और आत्मा फिर से आज़ाद है।
एक रात अर्जुन का दोस्त शान गायब हो जाता है। अर्जुन को उसका फोन मिलता है – लास्ट वीडियो में शान शीशे की ओर देख रहा है… और पीछे वो औरत है।
अर्जुन खुद को बचाने के लिए दादी के पास जाता है। दादी बताती हैं कि वो आत्मा कोली महिला की नहीं, बल्कि बिस्वास की फिल्म से पैदा हुई एक ‘काल्पनिक आत्मा’ है, जो अब रियल बन चुकी है – “कल्पना का भूत”।
बचने का एक ही रास्ता है – उस फिल्म की रील को जला देना, जिसे डायरेक्टर ने कभी रिलीज़ नहीं किया।
अर्जुन वो रील पाता है, और जैसे ही वो जलाता है – बंगले में तेज़ भूकंप जैसा कंपन होता है – चीखें, धुएं और अचानक सब शांत…
कुछ महीने बाद, अर्जुन का करियर चमकने लगता है। लेकिन हर बार जब वो शीशे में देखता है… एक काली परछाई एक पल के लिए उसके पीछे खड़ी होती है।
मुंबई, सपनों का शहर, पर हर सपने के नीचे छिपे होते हैं कुछ अधूरे वजूद, कुछ भूले हुए नाम, और कुछ छायाएँ, जो बस एक मौक़ा चाहती हैं – लौटने का।
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